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Sunday, November 22, 2020

जीवन के दुख

जीवन में आने वाले दुख को कैसे दूर करें, पढ़े ये कथा

महाभारत युद्ध अधर्म पर धर्म की लड़ाई थी। जो कौरव और पांडवों के बीच हुई थी। जिसमें कौरवों ने हर कदम पर छल और अधर्म का साथ लिया। वहीं, पांडवों ने धर्म के साथ आगे बढ़ते हुए इस युद्ध पर विजय प्राप्त किया।

महाभारत के शांति पर्व में युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से पूछा कि पितामह जीवन में कभी-कभी हमारे सामने ऐसी परिस्थितियां बन जाती हैं, जिसमें हम समझ नहीं पाते हैं कि क्या करें और क्या न करें। कभी-कभी गुरु द्वारा बताए गए ज्ञान के अनुसार कोई काम करना जरूरी होता है, लेकिन उसमें हिंसा होने की वजह से हमें अनुचित लगता है। पितामह, ऐसे अवसर पर हमें वह काम तुरंत करना चाहिए या उसके संबंध में विचार करना चाहिए।

भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को गौतम ऋषि और उनके पुत्र चिरकारी की कथा सुनाई। भीष्म ने कहा कि चिरकारी हर काम हर काम सोच-समझकर देरी से करता था। एक दिन गौतम ऋषि अपनी पत्नी से क्रोधित हो गए और चिरकारी से कहा अपनी का वध कर दे। ऐसा बोलकर गौतम ऋषि वहां चले गए।

चिरकारी सोचने लगा कि माता का वध करूं या नहीं। माता-पिता के बारे में धर्म के अनुसार विचार करने लगा। बहुत समय तक उसने पिता की आज्ञा का पालन नहीं किया। जब गौतम ऋषि लौटकर आए तो उन्हें दुख हो रहा था कि उन्होंने पत्नी को मारने का आदेश देकर गलती कर दी। जब घर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि चिरकारी की माता जीवित थी। ये देखकर गौतम ऋषि प्रसन्न हो गए।

भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा कि-

रागे दर्पे च माने च द्रोहे पापे च कर्मणि।

अप्रिये चैव कर्तव्ये चिरकारी प्रशस्यते।।

ये महाभारत के शांति पर्व के 266वें अध्याय का 70वां श्लोक है। इसमें भीष्म पितामह युधिष्ठिर से कहते हैं कि हमें राग यानी मोह बढ़ाने में, अत्यधिक जोश दिखाने में देरी करना चाहिए। घमंड दिखाने में, लड़ाई करने में, कोई पाप करने में, किसी का बुरा करने में जितनी ज्यादा हो सके, उतनी देरी करनी चाहिए। इस नीति का ध्यान रखने पर हम कई समस्याओं से बच सकते हैं।

Thursday, November 19, 2020

तीन प्रहर , जीवन की शाम

*तीन पहर......*

 तीन पहर तो बीत गए, बस एक पहर ही बाकी है, जीवन हाथो से फिसल गया, बस खाली मुठ्ठी बाकी है। सब कुछ पाया इस जीवन में, फिर भी इच्छाएँ बाकी है, दुनिया में हमने क्या पाया, यह लेखा जोखा बहुत हुआ, इस जग ने हमसे क्या पाया, बस यह गणनाएं बाकी है। तीन पहर तो बीत गए, बस एक पहर ही बाकी हैं। इस भाग दौड़ की दुनिया में, हमको एक पल का होश नही, वैसे तो जीवन सुखमय है, पर फिर भी क्यों संतोष नही, क्या यूं ही जीवन बीतेगा? क्या यूं ही सांसे बन्द होगी? औरो की पीड़ा देख समझ, कब अपनी आंखें नम होगी? निज मन के भीतर छुपे हुए, इस प्रश्न का उत्तर बाकी है। तीन पहर तो बीत गए, बस एक पहर ही बाकी है। मेरी खुशियाँ, मेरे सपने, मेरे बच्चे , मेरे अपने, यह करते करते शाम हुई, इससे पहले तम छा जाए, इससे पहले कि शाम ढले, एक परायी बस्ती में, एक दीप जलाना बाकी है। तीन पहर तो बीत गए, बस एक पहर ही बाकी है। जीवन हाथों से फिसल गया, बस खाली मुठ्ठी बाकी हैं।