Google+

Monday, December 28, 2020

सुंदर व्यवहार

*एक सभा में गुरु जी ने प्रवचन के दौरान*
*एक 30 वर्षीय युवक को खडा कर पूछा कि*
*- आप मुम्बई मेँ जुहू चौपाटी पर चल रहे हैं और सामने से एक सुन्दर लडकी आ रही है तो आप क्या करोगे ?*
*युवक ने कहा - उस पर नजर जायेगी, उसे देखने लगेंगे।*
*गुरु जी ने पूछा - वह लडकी आगे बढ गयी तो क्या पीछे मुडकर भी देखोगे ?*
*लडके ने कहा - हाँ, अगर धर्मपत्नी साथ नहीं है तो। (सभा में सभी हँस पडे)*
*गुरु जी ने फिर पूछा - जरा यह बताओ वह सुन्दर चेहरा आपको कब तक याद रहेगा ?*
*युवक ने कहा 5 - 10 मिनट तक, जब तक कोई दूसरा सुन्दर चेहरा सामने न आ जाए।*

*गुरु जी ने उस युवक से कहा - अब जरा सोचिए,*
*आप जयपुर से मुम्बई जा रहे हैं और मैंने आपको एक पुस्तकों का पैकेट देते हुए कहा कि मुम्बई में अमुक महानुभाव के यहाँ यह पैकेट पहुँचा देना।*
*आप पैकेट देने मुम्बई में उनके घर गए।*
*उनका घर देखा तो आपको पता चला कि ये तो बडे अरबपति हैं।*
*घर के बाहर 10 गाडियाँ और 5 चौकीदार खडे हैं। आपने पैकेट की सूचना अन्दर भिजवाई तो वे महानुभाव खुद बाहर आए। आप से पैकेट लिया। आप जाने लगे तो आपको आग्रह करके घर में ले गए। पास में बैठकर गरम खाना खिलाया। जाते समय आप से पूछा - किसमें आए हो ? आपने कहा- लोकल ट्रेन में। उन्होंने ड्राइवर को बोलकर आपको गंतव्य तक पहुँचाने के लिए कहा और आप जैसे ही अपने स्थान पर पहुँचने वाले थे कि उस अरबपति महानुभाव का फोन आया - भैया, आप आराम से पहुँच गए।*
*अब आप बताइए कि आपको वे महानुभाव कब तक याद रहेंगे ?*
*युवक ने कहा - गुरु जी ! जिंदगी में मरते दम तक उस व्यक्ति को हम भूल नहीं सकते।*

*गुरु जी ने युवक के माध्यम से सभा को संबोधित करते हुए कहा*
*_"यह है जीवन की हकीकत।"_*

 *"सुन्दर चेहरा थोड़े समय ही याद रहता है,__पर हमारा सुन्दर व्यवहार जीवन भर याद रहता है।*
*अतः जीवन पर्यन्त अपने व्यवहार को सुन्दर बनाते रहिए फिर देखिए आपके जीवन का रंग *🎨 
🌺🌸🌼🥀🌺🌸🌼🥀🌺🌸🌼

Sunday, December 27, 2020

प्रायश्चित

दो भाई  परस्पर बडे़ ही स्नेह तथा सद्भावपूर्वक रहते थे।

 दोनो भाई कोई वस्तु लाते तो एक दूसरे के परिवार के लिए भी अवश्य ही लाते, छोटा भाई भी सदा उनको आदर तथा सम्मान की दृष्टि से देखता !
 
एक दिन किसी बात पर दोनों में कहा सुनी हो गई। बात बढ़ गई और छोटे भाई ने बडे़ भाई के प्रति अपशब्द कह दिए। बस फिर क्या था ?

दोनों के बीच दरार पड़ ही तो गई। उस दिन से ही दोनों अलग-अलग रहने लगे और कोई किसी से नहीं बोला। कई वर्ष बीत गये !

मार्ग में आमने सामने भी पड़ जाते तो कतराकर दृष्टि बचा जाते, छोटे भाई की कन्या का विवाह आया। उसने सोचा बडे़ अंत में बडे़ ही हैं, जाकर मना लाना चाहिए !

 वह बडे़ भाई के पास गया और पैरों में पड़कर पिछली बातों के लिए क्षमा माँगने लगा । बोला, *"अब चलिए और विवाह कार्य संभालिए !"*

 पर बड़ा भाई न पसीजा, चलने से साफ मना कर दिया। 
  
छोटे भाई को दुःख हुआ। अब वह इसी चिंता में रहने लगा कि कैसे भाई को मनाकर लगा जाए इधर विवाह के भी बहुत ही थोडे दिन रह गये थे। संबंधी आने लगे थे !

एक सम्बन्धी ने बताया, *"तुम्हारा बडा भाई एक संत के पास नित्य जाता है और उनका कहना भी मानता है!"*

छोटा भाई उन संत के पास पहुँचा और पिछली सारी बात बताते हुए अपनी त्रुटि के लिए क्षमा याचना की तथा गहरा पश्चात्ताप व्यक्त किया और उनसे प्रार्थना की, *''आप किसी भी तरह मेरे भाई को मेरे यहाँ आने के लिए तैयार कर दे !''*

दूसरे दिन जब बडा़ भाई सत्संग में गया तो संत ने उससे पूछा, *"क्यों तुम्हारे छोटे भाई के यहाँ कन्या का विवाह है ? तुम क्या-क्या काम संभाल रहे हो ?"*

 *"मैं तो विवाह में सम्मिलित ही नही हो रहा। कुछ वर्ष पूर्व मेरे छोटे भाई ने मुझे ऐसे कड़वे वचन कहे थे, जो आज भी मेरे हृदय में काँटे की तरह खटक रहे हैं !''* बड़े भाई ने कहा।

संत जी ने कहा, *"सत्संग के बाद मुझसे मिल कर जाना!"*

सत्संग समाप्त होने पर वह संत के पास पहुँचा, उन्होंने पूछा, *"मैंने गत रविवार को जो प्रवचन दिया था उसमें क्या कहा था?"*

अब भाई मौन!

काफी देर सोचने के बाद हाथ जोड़ कर बोला, *" माफी चाहता हूँ,कुछ याद नहीं पडता़ कौन सा विषय था ?"*

संत बोले, *"देखा! मेरी बताई हुई अच्छी बातें तो तुम्हें आठ दिन भी याद न रहीं और छोटे भाई के कडवे बोल जो एक वर्ष पहले कहे गये थे, वे तुम्हें अभी तक हृदय में चुभ रहे है। जब तुम अच्छी बातों को याद ही नहीं रख सकते, तब उन्हें जीवन में कैसे उतारोगे"*

 *"और जब जीवन नहीं  सुधारा तब सत्सग में आने का लाभ ही क्या रहा ? अतः कल से यहाँ मत आया करो !''*

*अब बडे़ भाई की आँखें खुली।उसने आत्म-चिंतन किया और स्वीकार किया   _"मैं वास्तव में ही गलत मार्ग पर हूँ !"_*

 _*हमारे साथ भी ऐसा ही होता है अक्सर दूसरों की कही किसी बात का हम बुरा मान जाते हैं और बेवजह उससे दूरी बना लेते हैं।*_ 

_*हमें चाहिए कि हम आपसी बातचीत से मन में उपजी कटुता को भुलाकर सौहार्द पूर्ण वातावरण बनाएं।*_ 

_*न स्वयम किसी से रूठें न किसी को रूठने का मौका दें।*_         

*तो शुभ काम में देरी क्यों*

*कृपया उठाएं फोन और हो जाएं शुरू*

*रूठों को मनाने में*

*दूसरों की गलतियों को भुलाते हुए स्वयम ही वार्तालाप प्रारम्भ कर अपना और उनका दिन खुशियों से भरने में*

*बडप्पन भी इसी में ही है!*

Saturday, December 12, 2020

शान्ति

एक आदमी ने अपने घर की कॅालबेल सुधरवाने के लिए एक मेकेनिक को बुलाया हुआ था। बाहर जो घंटी लगी है वो खराब थी । दो दिन बीत गए, तीन दिन बीत गए, वह मेकेनिक नहीं आया। तो उसने फिर उसे फोन किया कि तुम आए नहीं, मैं तीन दिन से रास्ता देख रहा हूं।

उसने कहा, मैं आया था, मैंने कॅालबेल बजाई थी, लेकिन किसी ने दरवाजा नहीं खोला। अब उसको कॅालबेल सुधरवाने के लिए बुलाया हुआ था। उस सज्जन ने कॅालबेल बजाई, किसी ने नहीं सुनी इसलिए वापस लौट गए।

अधिक लोगों की प्रार्थनाएं इसी तरह की कॅालबेल पर हाथ रखना है, जो बिगड़ी पड़ी है, जो कहीं नहीं बजेगी। वे जिंदगी भर प्रार्थना करते रहें, कहीं नहीं सुनी जाएगी। फिर नाराज परमात्मा पर होंगे आप।

नाराज अपने पर हों, परमात्मा का इसमें कोई कसूर नहीं है। परमात्मा के साथ कम्युनिकेशन का, संवाद का जो पहला सूत्र है, वह शांति है। शांति के ही द्वार से हम उससे संबंधित होते हैं। या इससे उलटा कहें तो ज्यादा अच्छा होगा। अशांति के कारण हम उससे डिसकनेक्ट हो जाते हैं, 

इसलिए परमात्मा से शांति मत मांगिये, शांति आप खुद लेकर जाना उसके द्वार पर। आनंद उससे मिल सकता है, शांति आपको बनानी पड़ेगी।

जीवन को पकड़ें मत, बहने दें। फिर आप अशांत न होंगे। जिस चीज को पकड़ लेते हैं, वही अशांति ले आती है। चाहे आप प्रेम को पकड़ लें। कल एक आदमी आपका  मित्र था, आज मित्र नहीं है, तो आप अशांत हो रहे हैं। क्यों अशांत हो रहे हैं? इतना ही क्या कम है कि वह कल मित्र था। आज भी मित्र हो, यह आपकी पकड़ है। आप कह रहे हैं, कल मित्र थे तो आज भी मित्र होना ही चाहिए। बस अब आप अशांत होंगे। इतना ही क्या कम है कि वह कल मित्र था। कल के लिए धन्यवाद दे दें और बात समाप्त हो गई। तो फिर अशांत न होंगे।

Friday, December 4, 2020

तटस्थ या साक्षी

निष्क्रिय होना तटस्थ होना ,,,

एक पंडित था। बहुत शास्त्र उसने पढ़े थे। बहुत शास्त्रों का ज्ञाता था। उसने एक तोता भी पाल रखा था। पंडित शास्त्र पढ़ता था, तोता भी दिन-रात सुनते-सुनते काफी शास्त्र सीख गया था। क्योंकि शास्त्र सीखने में तोते जैसी बुद्धि आदमी में हो, तभी आदमी भी सीख पाता है। सो तोता खुद ही था। पंडित के घर और पंडित भी इकट्ठे होते थे। 

शास्त्रों की चर्चा चलती थी। तोता भी काफी निष्णात हो गया। तोतों में भी खबर हो गई थी कि वह तोता पंडित हो गया है।

फिर गांव में एक बहुत बड़े साधु का, एक महात्मा का आना हुआ। नदी के बाहर वह साधु आकर ठहरा था। पंडित के घर में भी चर्चा आई। वे सब मित्र, उनके सत्संग करने वाले सारे लोग, उस साधु के पास जाने को तैयार हुए कुछ जिज्ञासा करने। जब वे घर से निकलने लगे तो उस तोते ने कहा, मेरी भी एक प्रार्थना है, 

महात्मा से पूछना, मेरी आत्मा भी मुक्त होना चाहती है, मैं क्या करूं? मैं कैसा हो जाऊं कि मेरी आत्मा मुक्त हो जाए?

सो उन पंडितों ने कहा, उन मित्रों ने कहा कि ठीक है, हम जरूर तुम्हारी जिज्ञासा भी पूछ लेंगे। वे नदी पर पहुंचे, तब वह महात्मा नग्न नदी पर स्नान करता था। वह स्नान करता जा रहा था। घाट पर ही वे खड़े हो गए और उन्होंने कहा, हमारे पास एक तोता है, वह बड़ा पंडित हो गया है।

उस महात्मा ने कहा, इसमें कोई भी आश्चर्य नहीं है। सब तोते पंडित हो सकते हैं, क्योंकि सभी पंडित तोते होते हैं। हो गया होगा। फिर क्या?

उन मित्रों ने कहा, उसने एक जिज्ञासा की है कि मैं कैसा हो जाऊं, मैं क्या करूं कि मेरी आत्मा मुक्त हो सके?

यह पूछना ही था कि वह महात्मा जो नहा रहा था, उसकी आंख बंद हो गईं, जैसे वह बेहोश हो गया हो, उसके हाथ-पैर शिथिल हो गए। धार थी तेज, नदी उसे बहा ले गई। वे तो खड़े रह गए चकित। उत्तर तो दे ही नहीं पाया वह, और यह क्या हुआ! उसे चक्कर आ गया, गश्त आ गया, मूर्च्छा हो गई, क्या हो गया? नदी की तेज धार थी--कहां नदी उसे ले गई, कुछ पता नहीं।

वे बड़े दुखी घर वापस लौटे। कई दफा मन में भी हुआ इस तोते ने भी खूब प्रश्न पुछवाया। कोई अपशगुन तो नहीं हो गया। घर से चलते वक्त मुहूर्त ठीक था या नहीं? यह प्रश्न कैसा था, प्रश्न कुछ गड़बड़ तो नहीं था? हो क्या गया महात्मा को?

वे सब दुखी घर लौटे। तोते ने उनसे आते ही पूछा, मेरी बात पूछी थी? उन्होंने कहा, पूछा था। और बड़ा अजीब हुआ। उत्तर देने के पहले ही महात्मा का तो देहांत हो गया। वे तो एकदम बेहोश हुए, मृत हो गए, नदी उन्हें बहा ले गई। उत्तर नहीं दे पाए वह।

इतना कहना था कि देखा कि तोते की आंख बंद हो गईं, वह फड़फड़ाया और पिंजड़े में गिरकर मर गया। तब तो निश्चित हो गया, इस प्रश्न में ही कोई खराबी है। दो हत्याएं हो गईं व्यर्थ ही। तोता मर गया था, द्वार खोलना पड़ा तोते के पिंजड़े का।

द्वार खुलते ही वे और हैरान हो गए। तोता उड़ा और जाकर सामने के वृक्ष पर बैठ गया। और तोता वहां बैठकर हंसा और उसने कहा कि उत्तर तो उन्होंने दिया, लेकिन तुम समझ नहीं सके। उन्होंने कहा, ऐसे हो जाओ, मृतवत, जैसे हो ही नहीं। मैं समझ गया उनकी बात। और मैं मुक्त भी हो गया--तुम्हारे पिंजड़े के बाहर हो गया। अब तुम भी ऐसा ही करो, तो तुम्हारी आत्मा भी मुक्त हो सकती है।

'' तो अंत में मैं यही कहना चाहूंगा: ऐसे जीएं जैसे हैं ही नहीं। हवाओं की तरह, पत्तों की तरह, पानी की तरह, बादलों की तरह। जैसे हमारा कोई होना नहीं है। जैसे मैं नहीं हूं। जितनी गहराई में ऐसा जीवन प्रगट होगा, उतनी ही गहराई में मुक्ति निकट आ जाती है।"