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Thursday, May 29, 2014

नाव की जंजीर जैसे तट से बंधी रह गयी थी, ऐसे ही इस स्थिति में वह भी कहीं बंधा रह जाता है। इस बंधन को धर्म ने वासना कहा है। 
वासना से बंधा मनुष्य, आनंद के निकट पहुंचने के भ्रम में बना रहता है। पर उसकी दौड़ एक दिन मृग-मरीचिका सिद्ध होती है। वह कितनी ही पतवार चलाये, उसकी नाव अतृप्ति के तट को छोड़ती ही नहीं है। वह रिक्त और अपूर्ण ही जीवन को खो देता है। वासना स्वरूपत: दुष्पूर है। जीवन चूक जाता है- वह जीवन जिसमें दूसरा किनारा पाया जा सकता था, वह जीवन जिसमें यात्रा पूरी हो सकती थी, व्यर्थ हो जाता है और पाया जाता है कि नाव वहीं की वहीं खड़ी है।
प्रत्येक नाविक जानता है कि नाव को सागर में छोड़ने के पहले तट से खोलना पड़ता है। प्रत्येक मनुष्य को भी जानना चाहिए कि आनंद के, पूर्णता के, प्रकाश के सागर में नाव छोड़ने के पूर्व तट वासना की जंजीरें अलग कर लेनी होती हैं। 
इसके बाद तो फिर शायद पतवार भी नहीं चलानी पड़ती है! रामकृष्ण ने कहा है, 'तू नाव तो छोड़, पाल तो खोल, प्रभु की हवाएं प्रतिक्षण तुझे ले जाने को उतसुक है !!

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